कुमार पाशीची गजल आणि नज्म दोन्हींची कथनशैली तद्पूर्वीच्या गजलहून पृथक होती. त्याचमुळे गंभीर प्रकृतीच्या वाङ्मयीन रसिकवर्गात ती वाखाणली तर गेलीच, परंतु सुबोधता आणि संप्रेषणीयता या अंगभूत गुणांमुळे मुशायऱ्यातही गाजली.
उ र्दू काव्याने एक नवीन वळण घेतलं ते १९६० च्या दशकात. यात राजेंद्र मनचंदा ‘बानी’, कुमार पाशी, अमीक हनफी, मोहम्मद अलवी, निदा फाजली अशी अनेक महत्त्वपूर्ण नावे होती. यात बानी अन् पाशी यांची गजलशैली जरा हटकेच होती.
कुमार पाशीचा हा शेर-
सच तो ये है कि गजल में पाशी
इक नया *तर्जे-बयाँ हूं मैं भी
सकृत्दर्शनी आत्मप्रौढीचा वाटणारा हा शेर सत्य तेच सांगतोय. कुमार पाशीची गजल आणि नज्म दोन्हींची कथनशैली तद्पूर्वीच्या गजलहून पृथक होती. त्याचमुळे गंभीर प्रकृतीच्या वाङ्मयीन रसिकवर्गात ती वाखाणली तर गेलीच, परंतु सुबोधतेच्या अंगभूत गुणामुळे मुशायऱ्यातही गाजली. हा तोच काळ होता जेव्हा उर्दू काव्य-साहित्य काहीसं सपक होऊ लागलं होतं. कुमार पाशींचा हा शेर –
जब *अदब अपने खत्म पर आये
हर *मुदíरस *अदीब कहलाये
पाशीचे वेगळेपण दर्शविणारे काही शेर –
दिशाएँ छू रही आज मुझ से
निकल कर खुद से बाहर आ गया हूं
वो एक रंग : कि जिस में तमाम रंग छुपे
उस एक रंग में खुद को म *जा-ब-जा देखूँ
यू भी हम अपने *हरीफों को सजा देते हैं
डूबना चाहें तो हम पार लगा देते हैं
पल दो पल का वक्त बहुत है अब मेरे मुरझाने में
और अब कितनी देर करोगे तुम बादल बरसाने में
राहों में अपनी घोर अंधेरे हैं दूर तक
शायद दिलों में अपनें उजाला नहीं रहा
आज रू-ब-रू है दोनों मुखोटे उतार के
अब दरमियाँ में कोई भी पर्दा नहीं रहा
कुमार पाशीचे खरे नाव शंकरदत्त. ते पाकिस्तानातील बगदाद उल जदीद येथे १ जुल १९३५ ला जन्मले. फाळणीनंतर भारतात जयपूर आणि नंतर दिल्ली येथे स्थायिक झाले. जदीद म्हणजे आधुनिक उर्दू शायरीत त्यांचा प्रामुख्याने उल्लेख होतो. १७ सप्टेंबर १९९२ रोजी दिल्ली येथेच त्यांचे निधन झाले. मरणोपरांत दिल्ली उर्दू अकादमीने त्यांना गौरविले. ज्येष्ठ उर्दू शायर अहमद नदीम कासमी म्हणतात –
‘‘कुमार पाशी के कलम में जिन्दगी और फिक्र (विचार) की चमक है जो मुझे पसंद है.’’
कहीं किसी की नजर न हम को लग जाये
अपनी मौत की खबर उडाते रहते हैं
चादर अपनी बढे घटे ये फिक्र नहीं
पाँव हमेशा हम फैलाते रहते हैं
पाऐंगे न हम अपना पता सोच लिया है
हो जाएँगे अब खुद से जुदा सोच लिया है
अपने सिवा था कौन : मैं देता जिसे शराप
अपने ही सर पे हाथ रखा और मर गया
जिन्दगी की *मिसाल क्या दीजे
आरजूओं का इक *शजर है मियाँ
कुमार पाशींनी आपल्या काळात जुनेच शब्द वापरले जात होते याची जाणीव होती. आपल्या गजलेच्या आरंभिक शेर रचनांच्या संदर्भात म्हणतात –
जो शेर भी कहा वो पुराना लगा मुझे
जिस *लफ्ज को छुआ वही *बरता हुआ लगा
यूँ अपनी जात के जंगल में खो गया पाशी
कभी तो खुद से निकल दुसरों का किस्सा लिख
अन्, खरोखर पाशी, बानीसारख्या मोजक्याच शायरांनी पारंपरिक शब्दावली त्यागून बोलाचालीतले अनेक शब्द अंगीकारले. पाशींच्या कवितेत कृष्ण, गोकुळ, मथुरा, गंगा, अयोध्या, इत्यादी मिथक संदर्भ प्रतीकात्मक, रूपकात्मक शैलीत साकारतात. ‘अयोध्या, मैं आ रहा हूं, कृष्ण’ इत्यादी कविता या संदर्भात अभ्यासनीय आहेत. कवी निदा फाजली म्हणतात, ‘‘पाशी की शायरी में हिन्दुस्तानी मिट्टी की बू बास भी हैं और यहाँ के मौसमों का रचाव भी। *लबो-लहजे की ऐसी *पुरअसर *शाइस्तगी बिना *फनकाराना ईमानदारी के मुम्किन नहीं।’’
अशाच रंगशैलीतील पाशीची ही एक कविता –
अन्तिम संस्कार
सूख चुकी है बहती नदी
आखों में अब नीर नहीं है
सोचो तो कुछ
कहाँ गये वो भक्त, पुजारी
सुबह को उठ कर
जो सूरज को जल देते थे
कहाँ गया वो चाँद सलोना
जो लहरो के होंट चूम कर
झूम-झूम कर
आँखो की पुरशोर नदी में लहराता था
पानी से *लबरेज घटाओ!
जल बरसाओ
सुन्दर लहरो!
आँखों की नदी को जगाओ
जाने कब से
बीते जुग के फूल लिये हाथों में खडा हूँ
सोच रहा हूँ, इन्हें बहा दूँ
जीवन का हर दर्द मिटा दूँ ।
त्यांची ही काही प्रकाशित पुस्तके
‘पुराने मौसमों की आवाज’ (जानेवारी १९६६-कविता), ‘ख्वाब तमाशा’ (सप्टेंबर १९६८ कविता), ‘इन्तिजार की रात’ (१९७३ कविता), ‘विलास-यात्रा’ (१९७२ लम्बी कविता), ‘इक मौसम मिरे दिल के अन्दर इक मौसम मिरे बाहर’ (१९७९), ‘जुम्लों की बुनियाद’ (१९७४-एकांकी नाटक), ‘पहले आस्मान का जवाल (कहानीसंग्रह), ‘रू-ब-रू’ (१९७६) (गजले), ‘जवाले शब का मंजर’ (१९८४), ‘अर्धागिनी के नाम’ (१९८५) ‘कविता’ (उर्दू /िहदी), ‘चाँद-चिराग’ (१९८४) कविता. संपादन – मीराजी : शख्सियत और फन, सुतूर (त्रमासिक) मुहम्मद अलवी, गोपाल मित्तल, उर्दू की आधुनिक कहानियाँ.
पाशीं यांचे काही अनोखे शेर आहेत. त्यांचा आस्वाद घेऊ या –
जुल्म हर आन होता रहता है
हाथ हर दम *दुआ में रहते हैं
भूलेंगे न हम उन का *करम, उन की *इनायत
हम जख्म को रखेंगे हरा सोच लिया है
आँधी थी तेज, कोई खबर भी न पा सका
दिल के शजर पे एक ही पत्ता था आस का
खुश्बू तेरे बदन की जो ले आई है ये शाम
ये शाम क्यूं न मय के पियाले में भर दिखाएँ
मैं सदियों पुरानी कथा हूँ कोई
भुला दे तू अब ऐ जमाने मुझे
अब काट दिये पांव हर इक *शख्स के उसने
इस शहर में अब इस से बडा कोई नहीं है
दोस्त रहते हैं मिरे कत्ल के दर पे हरदम
और दुश्मन हैं जो करते है *हिफाजत मेरी
फैसला देगी यकीनन् वो उसी के हक में
यूँ तो सुन लेगी हर इक बात अदालत मेरी
शहरातील सांप्रदायिक दंग्याच्या संदर्भातील हे शेर मुलाहिजा हो-
इन्सान के लहू का वो दरिया नहीं रहा
लगता है शहर में कोई जिन्दा नहीं रहा
मैं भी वही हूँ और मेरा शहर भी वही
लेकिन जो *आश्ना था वो चेहरा नहीं रहा
अशातही हा शायर सकारात्मक स्वरात म्हणतो –
जहर कितना भी हो बाहर की *फजाओ में मगर
*फिक्र में *मिस्री भरूँ *इज्हार को मीठा करू
दिन में हँस हँस कर मिलूँ अपनों से भी गरों से भी
रात को घर के दरो-दीवार से झगडा करूं
अतिरिक्त मद्यपान हा अनेक उर्दू शायरांना लाभलेला शाप. कुमार पाशी त्यास अपवाद नव्हते. त्यांना जाणीव होती-
हम भी *यक्ता हैं *हुन्नर में अपने
शहर में अपनी भी *शोहरत है बहुत
शंभर-दोनशे शायरांत एखादाच ‘रुबाया’ हा काव्यप्रकार उर्दूत वापरतो. कारण चोवीस छंदातील ही लयदृष्टय़ा शिथिल आणि सृजनास किचकट आहे. परंतु पाशीने यात सुंदर रचना केल्या आहेत –
इक विष भरे सागर में उतारा मुझ को
आता ही नहीं नजर किनारा मुझ को
ये शाम ढले किस की सदा आयी है
ये किसने सरे-जाम पुकारा मुझ को
मंटो, कुमार पाशीसारख्यांच्या अकाली ओढावून घेतलेल्या मरणाबद्दल असेच म्हणतात येईल-
हाय वो लोग कि था जिन को
हर इक लम्हा *अजीज
चल दिये मौत के *तारीक
समन्दर की तरफ.

तर्जे-बयाँ : कथन शैली, अदब : साहित्य, मुदíरस : शिक्षक, अदीब : साहित्यिक,
जा-ब-जा : इकडेतिकडे , हरीफ : प्रतिद्वंदी,
मिसाल : उदाहरण, शजर: झाड, लफ्ज : शब्द,
बरता: वापरलेला, लबो-लहजा : शैली, ढंग,
पुरअसर : प्रभावी, शाइस्तगी : सौजन्य, शिष्टाचार, फनकाराना: कलात्मक, लबरेज: आकंठ, काठोकाठ, दुआ: प्रार्थना, करम: कृपा, इनायत: मेहरबानी,
शख्स: व्यक्ती, हिफाजत: रक्षण, आश्ना: परिचित, फजा : वातावरण, फिक्र : विचार, चिंतन,
मिस्री : साखर, गोडवा, इज्हार : अभिव्यक्ती,
यक्ता: एकमेव, हुनर: कला, शोहरत: प्रसिद्धी,
अजीज : प्रिय, तारीक : काळोख ल्ल
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