धरती को बौनों की नहीं,
उंचे कद के इंसानों की जरूरत है।
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इतने उंचे कि आसमान को छू लें,
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें,
किंतु इतने ऊंचे भी नहीं,
कि पांव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
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न वसंत हो, न पतझड,
हो सिर्फ ऊंचाई का अंधडम्,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।
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मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।
(ऊंचाई कवितेतील काही भाग..)
दो अनुभूतियां
पहली अनुभूति
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बडम्े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नजम्र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
हम जियेंगे तो इसके लिये..
भारत जमीन का टुकडम नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं,
सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है,
अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है,
यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
हिन्दुस्तान हमारा
दुनिया का इतिहास पूछता,
रोम कहाँ, यूनान कहाँ?
घर-घर में शुभ अग्नि जलाता।
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के,
व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,
किन्तु चीर कर तम की छाती,
चमका हिन्दुस्तान हमारा।
शत-शत आघातों को सहकर,
जीवित हिन्दुस्तान हमारा।
जग के मस्तक पर रोली सा,
शोभित हिन्दुस्तान हमारा।
– अटलबिहारी वाजपेयी</strong>